‘मदर इंडिया’ – मां भी, मसीहा भी और मेकअप में खेत जोतती महिला भी!

साक्षी चतुर्वेदी
साक्षी चतुर्वेदी

“मां तो आखिर मां होती है… लेकिन जब वही मां बंदूक उठा ले, तो या तो क्रांतिकारी कहलाती है या Meena Kumari का स्ट्रॉन्ग वर्ज़न!”

उदित राज ने उठाए सवाल: अंतरिक्ष में दलित क्यों नहीं गया?

सिनेमाई भूमि पूजन: खेत, गरीबी और पसीने में लिपटी मां

1957 में मेहबूब खान ने जो किया, उसे आज कोई निर्देशक एक फिल्म में नहीं कर पाएगा – उन्होंने “मां” को राष्ट्र बना दिया और राष्ट्र को सीधा emotional guilt-trip पर भेज दिया।

नर्गिस उस वक्त मां बनीं जब असल ज़िंदगी में वो सुनील दत्त से रोमांस कर रही थीं – ऑनस्क्रीन मां, ऑफस्क्रीन मोहब्बत – और यह versatility आज भी unmatched है।

महिला सशक्तिकरण या ‘मां-ममता-त्याग’ की overdozed थाली?

फिल्म की नायिका राधा (नर्गिस) खेत जोतती हैं, बच्चों को पालती हैं, सूदखोर लाला से लड़ती हैं और अंत में अपने ही बेटे को गोली मार देती हैं।
अगर यही सब किसी पुरुष ने किया होता, तो कहते – “क्या हीरो है!”
लेकिन मां ने किया, तो कहा गया – “भारत माता की जय!”

वास्तव में ये फिल्म जितनी महिला सशक्तिकरण की बात करती है, उतनी ही सशक्त महिला को भावनाओं से जकड़ भी देती है।

बेटा बिगड़ा, मां सुधरी — क्लाइमेक्स में नैतिकता का गुगली शॉट

बिरजू (सुनील दत्त) जब लाला की बेटी को उठाकर भागता है, तब राधा ममता छोड़कर मोरल पुलिस बन जाती हैं। और जब वो गोली चलाती हैं, तो दर्शक सोचते हैं – “क्या मां होने के लिए इतना त्याग ज़रूरी है?”

फिल्म या राष्ट्र निर्माण का डॉक्युमेंट्री?

‘मदर इंडिया’ सिर्फ फिल्म नहीं, Indian Idealism का पोस्टर है – गरीबी, श्रम, शोषण, और त्याग – सब कुछ हाई-कॉन्ट्रास्ट ब्लैक एंड व्हाइट में लिपटा हुआ।

जैसे अगर नेहरू जी को Netflix सीरीज़ बनानी होती, तो यही बनती।

अगर राधा ट्विटर पर होती तो?

  • बिरजू को गोली मारने के बाद tweet: “Sorry beta, but sanskaar > blood relations.”

  • लाला को RT करके बोलती: “Main tereko chhodungi nahi!”

  • #MaaGoals #DeshKiMaa #BetaGoneWrong ट्रेंड कर जाता।

क्लासिक है, लेकिन थोड़ा सवाल उठाना भी ज़रूरी है

‘मदर इंडिया’ भारतीय सिनेमा की रीढ़ है – पर ये भी सच है कि “स्ट्रॉन्ग वुमन” का मतलब सिर्फ त्याग की देवी होना नहीं होना चाहिए।
आज के संदर्भ में ये फिल्म उतनी ही प्रेरक है, जितनी सवालों से भरी।

 रेट्रो क्लासिक रिव्यू में यह फिल्म क्या सिखाती है?

  1. त्याग की महिमा, पर सवाल पूछना भी ज़रूरी है।

  2. इमोशन की राजनीति, जो 1957 में भी थी और 2025 में भी है।

  3. मां के नाम पर सब जायज़, मगर क्या हर बार?

दिग्विजय सिंह बीजेपी के लिए काम कर रहे हैं -लगता तो ऐसा ही है!

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